Friday, June 11, 2010

बतलाओ ना मॉ

बतलाओ ना मॉ

बातें बचपन की है
मैंने जब भी कोई काम
खेलने-कूदने की हड़बड़ी में
ठीक से नहीं किया तो समझो

खूब-खूब डॉट मॉ से पड़ती होती थी
आटा उसनते कभी बेहिसाब नमक कभी
ढेर सारा पानी डाल दिया करती
फुलकियां लोई आड़ी-तिरछी हुबहू चकले पर

भूगोल का नक्शा बना दिया करती
मॉ डॉटती जोरदार झापट जड़ देती
चोटी खींचती कान मरोड़ती
भले ही वे अकेले में इसी सजा को मुझे देते-देते जो
खुद भी मेरा कान लाल देखकर गुपचुप रो-रो पड़़ती

मॉ के डर ही से सही हम बेटियॉ हर काम
सलीके से करना सीख ही लिया करती है

हम काम सलीके से करने की बचपन ही से
एक अच्छी आदत जो बनी मॉ आपकी वजह से
मेरे सलीकेदार काम की जहॉ-जहॉ भी
जब-जब भी तारीफ हो रही होती है तो मॉ

आपके हाथों कान मरोड़ने का वह दर्द मुझे
तब का तो याद रहा ना रहा अब बेहद याद आता है
आपको तो मेरी इस खुशी का अन्दाजा भी ना होगा मॉ
अपनी नन्ही बेटी को इस दौर में सलीकेदार कैसे बनाऊं र्षोर्षो

बगैर कान मरोड़े़ उसे मैं आटा उसनना लोई और
गोल-मटोल फुलकियॉ बनाना कैसे समझाऊं र्षोर्षो
मॉ बतलाओ ना उसे भी घर बनाना कैसे सिखलाऊं र्षोर्षो
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सयानी होती बेटी

सयानी होती बेटी की फ्राक जब
तंग हो रही होती है
मॉ की चिन्ताएं दिन-दूनी
बढ़ जाया करती है

रात-रात जब
बेटी की नीन्दों में सजीले
सपनें उतरते हैं

मॉ की रातें इधर-उधर
करवटें बदलते-सोचते
बीता करती है

बेटी सयानी हो तो घर के
सारे काम भले ही हल्के हो जाते हैं मॉ के लिए
चिन्ताओं का बोझाश् और बढ़ जाता है

बेटी कहीं के लिए घर से जरा
निकली ही सही
मॉं की निगाहें सीढ़ियों

दरवाजा कभी
घड़ी को लगातार तकती है
बेटी की चिन्ता में वह

पति को कभी
बेटों को लगातार टोंकती है

बेटियॉ हालांकि
जमाने के मिजाज को
अच्छी तरह जानती है समझती है

इसिलिए ममता का तिनका-तिनका
दुपट्टे की गांठ में सलामत रखे हुए
किसी भी सूरत में जरुर समय से ही
घर लौट आया करती है सयानी बेटियां ।

उशाप्ररब्ध

डर की ताकत

देर रात चौकीदार
गश्त पर निकला है

इधर से उधर भड़भड़ाता फिर रहा
डण्डा और सीटी बजाता गश्त दे रहा

चौकीदार को घूमते देख
कुत्ते और तेज भौंक रहे

चौकीदार कुत्तों से सहमा-सहमा
कुत्ते तो कुत्ते ठहरे

कुत्तों से चौकीदार डर रहा
कुत्ते चौकीदार की लाठी से उधर

कुत्ते,लाठी,चौकीदार तीनों से
जिसे डरना था

तैनात रहा चौकीदार
तैनात रही लाठी और तो और

तैनात रहे घरों के लोग
इन सबसे जो डरा-डरा था

वह फिर भी
बच निकला था।
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चिड़िया और झील

सुबह जब पहली चिड़िया बोलती है
उसे सुनकर हमारी झील सुबह में
मन्द-मन्द मुस्कुराती है

हवाएं तरो-ताजा शीतल यहॉ
इसकी लहरों पर
मानिग दौड़ लगाती है

धवल बतखें ऐसे जैसे
कई सारे मोगरे खिलें हों

रथ दौड़ाते फिर सूरज चाचू जब
जमाने भर की भीड़ ले आते हैं यहॉ
शोर से किनारे भर जाया करते हैं

तब ना तो चिड़ियां की आवाज
झील को सुनाई पड़ती है और

ना ही बेचारी झील
चिड़िया के संग
मन्द-मन्द मुस्कुरा पाती है।
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ऊषाप्रारब्ध

पुलिया

पुलिया के
नहीं होने की पीड़ा

कभी पूछो
उन रास्तों से

जिधर कोई दूर-दूर तक
पुलिया नहीं होती

उधर से गुजरते हुए कोई भी
घड़ी दो घड़ी वहॉ रुकना

सुस्ताना नहीं चाहता
पुलिया कभी किसी को

अकेला नहीं होने देती उससे
कोई करे ना करे पुलिया

सबसे संवाद करती है
दूर-दूर तक जहॉ-जिधर कोई

पुलिया नहीं होती वे रास्ते सूने-सूने
तन्हाई और थकान से सराबोर रहते हैं

यहॉ पंछियों-परिन्दों की तरह सब चहकते
साथ बैठते हैं सुख-दु:ख बॉटते-सुनाते

पुलिया तक आने वाले आपस में
ज्यादा समय तक अपरिचित नहीं रहते ।
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आवाजें

हमारे कौन होते हैं वे लोग जो हमें यूं
बरसों -बरस याद रह जाते

जाने क्यों
हर कभी याद आ जाते चेहरे वे ही आसपास के

कितनी आवाजें आसपास की बरसों पुरानी
जस की तस संवाद करती लगा करती है

कहॉ होगी वह ग्वालिन जो
दूर कहीं से चली आती थी मटकी लिए वह

गली- गली पुकारती घूमती
मही ले लो, दही ले लो ......

ये आवाजें हमारे आसपास हर रोज संवाद करती है
ये लोग गली-गली सुबहो-शाम हर कुछ लिए आते

घूम-घूमकर पुकारते रहते ये आवाजें
याद रह जाया करती है

क्यों हम बरसों बरस इन्हें भूल नहीं पाते जबकि
ये लोग हमारे कोई भी तो नहीं होते ।
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बड़े बाबू

घर से छूटे तो कहीं अटकते
घर-दफ्तर तक पूरा दिन ही

रहते बेचैन बड़े बाबू
कभी कहीं तो कभी किधर

हरेक कतार में लगे मिल
जाया करते बड़े बाबू

यारों संग बेचारे
पल-पल में दौड़े

इडली-सांभर कभी चाय-पकौड़े
वे क्या खाएं क्या छोड़े

सीट पर नज़र आए ना आए वे
चश्मा हरदम हाजरी देता है

बिन स्याही ज्यो पेन का होना
बिना बाबू कुछ भी ना होना

बगैर बाबू दिखे ये नमूना
साहेब सूनें दफ्तर भी सूना

रस-मलाई, बरफी,मक्खन-टिकिया,
पान-चूना क्या नहीं है बड़े बाबू ।

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उषा प्रारब्ध

हम फरिश्ते में भी आदमी -
आदमी की तरह
जो रहे आदमी
है सिकन्दर जहॉ में
वही आदमी

पीर फकीर ना ही कोई फरिश्ते ढूंढेगें
इस भीडृ में हम ढूंढेगें तो
आदमी के लिए
बस आदमी ढूढेंगें

मिस्जदों मन्दिरों कही किसी
चर्च गुरुद्वारे में नहीं हम तो

दिलों की इमारत ही में अपने
कुरान गीता बाइबल ढूंढेंगें

हद से ना किसी भी सरहद से बंधेगें हम तो
परिन्दें हैं सरहदें छोड उंचे आसमानों में उड़ेगें ।

Monday, May 10, 2010

कविताएं

शून्य की कैद में
पिता,अक्सर सुनाया करते यह कि
उनके समय में
पिता-पुत्र के
सीधे संवाद की परम्परा नहीं थी चलन में,
उन दिनों असम्भव हुआ करता था
पिता के आग मुंह खोलना
मां,बुआ,दादी के जरिए जैसे-तैसे
अपनी बात कह पाते
पिता के कटघरे में जाते हजुए कंपकंपा जाते ।
थरथराते,पसीना पोंछते,बामुश्किल कहते कुछ का कुछ
शब्द जैसे ओठों में ही अटके रह जाते
इतना कायदा अब कहां बेटों की कचहरी
कटघरे में वर्तमान और भविष्य र्षोर्षो दलीलें,दलालों,खारिज
अपीलों का बोझ लिए
अपने ही शून्य में कैद
पिता ही पिता ।
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बागड़ की

बेलें
छुईमुई नहीं,ये
लरजता गुलाब भी नहीं
बागड़ की बेलें है छैल छबीलियां
ये आदिवासी रूपसियां
खेतों खलिहानों मेड़ों बीहड़ों
कुंआ-बावड़ी गारा गोबर गिट्टी मिट्टी
सुबह से सांझ तक ये चकरघिन्नियां
सूरज के चेहरे पर
गोधुली के उजास सी
बागड़-बागड़ लहराती बेलें है ये
चिलचिलाती धूप में नर्म दुर्वा है
लोक धुनों की गमक
हंसिए की चमक
महुआ सी मादक
खट्टी मिट्टी ईमलियां करौन्दे जामुन गूलर
कच्ची केरियों सी ये छोरियां
सपने बुनते सलौनियां ।
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बड़े बाबू
घर से छूटे तो कहीं अटकते रहते
घर दफ्तर तक पूरा दिन
रहते बेचैन बड़े बाबू
कभी कहीं तो कभी किधर
हरेक कतार में लगते मिलते
बड़े बाबू
यारों संग बेचारे
पल पल मे दौड़े
इडली,संाभर कहीं चाय पकौडे़ वे
क्या-क्या खाएं क्या-क्या छोड़े र्षोर्षो
सीट पर नज़र आएं ना आएं हरदम
चश्मा उनकी हाजरी देता है
बिन स्याही ज्यौं पेन का होना
बिन बाबू कुछ भी ना होना
बगैर बाबू दिखता यही नमूना
साहेब सूने दफ्तर भी सूना
रस मलाई बरफी मक्खन टिकिया
पान चूना क्या नहीं है बड़े बाबू
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नया गुड़
पिता कभी
जब गरमी के दिनों
पोटली में पके-पके आम,केरियों,गन्ने की बनी राब
ताजी रसाल,होला,उम्बी,नया गुड़ होता था
नए गुड़ और सलाल के चावलों लड्डुओं की
हमें ही नहीं हमारे शहरी
अड़ौस-पड़ौस को भी
बेसब्री से प्रतीक्षा रहा करती
बारिश आते ही बोरियां भर भर कांधे पर वे
काकडी-भुट्टे लाया करते थे पिता तब की तरह
होला,उम्बी,केरियां आम काकड़ी भुट्टे और
मीठे ताजे गुड़ की भेली नहीं, अब वे
डाक से मिली लाचारी भरी चिट्ठी लगते हैं
जिसे पढ़ने की यहां अब किसी कोफुर्सत नहीं ।
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Monday, April 19, 2010

मैं फिर लौटूंगी

इस खूबसूरत दुनिया से
अन्तत: विदा होने का दिन
नहीं मालूम किसी को भी
कि कौन सा होगा समय
तिथि घड़ी वार मौसम
हो सकता है
गुलाबी ठण्ड हो
या मावठा बरस रहा हो
और मरघट की तमाम लकड़ियां
मना कर दें सुलगने से
हो सकता है
यह भी कि गर्मी तेज हो
तपतपाती धूप में
सिवा मेरे
सब ढूंढे ज़रा सी छांह
मुस्कराते हुए
अपनी ठण्डक में
सहेज लें का
वैसे मुझे तो वसन्त बेहद पसन्द है
झरा पत्ता ही सही
मैं फिर लहलहाने किसी टहनी पर
लौटूंगी पूरे हरेपन के साथ ।
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बेटी जा जन्म दिन
(बिट्टू के लिए)-एक मार्च
आज
उसका जन्म दिन है
और वह
घर से हजारों मील दूर
परदेश में
फोन एसएमएस
मोबाइल
कम्प्यूटरयुग
फिर भी उसे चाहिए
चिटि्ठयां जन्म दिन पर
हाथ की लिखी नेह भरी
ढेर सारी चिटि्ठयां
जिसमें आंगन का नीम
लदी हुई निम्बोलियां
स्कूल वाली सड़क
टेसू पलास के फूल
बौराया आम
कच्ची कैरियां
कूकती कोयल
सखी सहेलियां
पनघट की मुण्डेर
मिन्दरों के ओटले
बरगद पीपल
बैलगाड़ी की आड़ में
छुपा छुपी का शोर
गली मुहाने
अड़ोस-पड़ोस
घर-आंगन
छोटू की खटर-पटर
बछडी और गाय का रंभाना
मिस्जद से गूंजती अजान
उसे नहीं चाहिए
एसएमएस ई-मेल
टेलीफोन ग्रीटिंग्स
उसे चाहिए
पूरी धरती
हाथ की लिखी चिट्ठी में ।

Saturday, April 10, 2010

कविताएं

पेड़ बनने की उम्मीद
चिलचिलाती धूप में
छायादार बनी स्मृति
पुश्तैनी मकान की
खण्डहर जमीन
एक ढेले में दबी गुमठी से
फूटती हुई कोंपलें
जिसकी उंगली थामें
चली जाती हूं अतीत में
घने आम के नीचे
मुझे दुलार रही थी बड़ी बहन
फूटे पीपे से पानी ढो रहे पिता
डनकी लट्ठेदार बनियान अब भी
सूखी नहीं
उसमें गीलेपन की महक बाकी थी ।
मां ने अभी अभी
लीपी थी भीत
पिता तोड़ेंगे आम
मुरझाई कोंपल में
बाकी है
पेड़ बनने की उम्मीद
एक गिलास पानी
उढेल देती है
कोंपल पर ।
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टेबल फैन
पुराने टेबल फैन की हवा ने भरी दोपहरी
उलट दिए पन्ने पुरानी डायरी के पीले-पीले से
हरेक पन्ने पर दर्ज थी कई सारी खुशियां छोटी छोटी सी
पगार के नपे तुले बजट में से किसी तरह बचा बचाकर
घर में कुछ ना कुछ खरीद लाने मसलन,किसी गरमी
एक अद्द टेबल फैन घर ले आने की बड़ी बेहदखुशी
कितनी बड़ी थी बिट्टू का पहला दान्त उग आने
डसके पहली बार खड़ी होने तुतलाने कभी हमसे
आइस्क्रीम फुग्गे चाकलेट की जिद में रूठ जाने
बच्चों को तरह तरह जतनों से मनाने की खुशी
आसपारस ही कहीं सैर सपाटे को दिनों दोहराते हुए
सबको बात बात में बताने की खुशी
भरी भीड़ टाकीज की लाईन में जैसे तैसे
पिक्चर का टिकिट मिल जाने की खुशी जाने कहां र्षोर्षो
दुनियादारी के पतझड़,सावन,वसन्त बहारों की खुशियां
डायरी के धूंधलके पन्ने दर पन्नेदर्ज रह गई
भूली बिसरी गुमशुदा कई सारीवे हमसे बहुत दूर
कहां गुम हुई कहां तलाशे खुशियां बेहद छोटी छोटी
सी खुशियां कहां गई
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पेड़
सुहागिनें युगों से
पेड़ को पूज रही
सूत लपेट रही मन्नते मांगते
उससे कोई अपनी अपनी
व्यथाएं सुना रही
पेड को नहीं पता कि सदियों से
आखिर उसमें विराजते भगवान कौन से
स्त्रियों के लिए पेड़ भगवान है
छुपा छुपी खेल रहे बच्चां के लिए
छुपने छुपाने की जगह और कितने सारे
पक्षियों का आसरा भी बसेरा भी है पेड़
सदियों से पेड़ किसी भगवान के लिए नहीं
पूजती सूत लपेटती स्त्रियों इतने इन नन्हे
छुपा छुपी खलते बच्चों
आसरा बनाते पक्षियों और
झूला झूलती बेटियों के लिए बांहे फैलाएं ये
पेड़ सदियों से इन सबके लिए ही धरती पर हरे है ।
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